Friday, November 21, 2008

धूप लिफाफे में का लोकार्पण ज़मानिया में

कविता संग्रह धूप लिफाफे में का लोकार्पण गाजीपुर के ज़मानिया में १ नवम्बर २००८ को किया गया। किताब का लोकार्पण राजकिशोर सिंह डिग्री कॉलेज के सभागार में जाने माने कवि श्री हरिवंश पाठक गुमनाम ने किया। इस मौके पर कुछ और भी विशिष्ट अतिथि मौजूद थे। इस लोकार्पण कार्यक्रम की कुछ झलकियाँ नीचे पेश हैं।






























Wednesday, July 9, 2008

गुमनाम जीः मरने वालों में, हाँ तुम नहीं थे !

मेरी अपनी कल्पनाओं में भी कविता-कुसुम खिलने लगे थे। बाकी दुनिया और मेरे बीच 'कविता' थी तथा 'कविता' और मेरे बीच 'कल्पना' थी। जी हां, ये कविता मेरे अंतर्मुखी स्वभाव के मोटे आवरण के पीछे थी। झेंप इतनी कि यह काव्य-रोमांस कहीं उजागर होकर मुझे अपराध के कटघरे में न खड़ा कर दे। न जाने कितनी कविताओं के चिट-पुर्जे जेब में पड़े-पड़े चूहों के कुतरे हुए कागजों में तब्दील हो गये। अखबारों से सरोकार उन्हें केवल बांचने भर से था। उनमें छपना तो अत्यंत दुष्कर लगता था। तिस पर इंदिरा गांधी की अ़ड़ियल इमरजेन्सी। अभिव्यक्ति पर पाबंदी का त्रासद चिंतन 'अनुभूति' के धरातल पर हर क्षण पटक देता था। एक अजीब बेचैनी मुझे शब्दों के जोड़-तोड़ के लिए विवश करती। उनके अर्थ उमड़ते-घुमड़ते मेरे मन को थोड़ी राहत दे देते। दूसरों को कितना अर्थवान लगते इसका भान नहीं था मुझे। तब मैं बी.ए. का छात्र था। 'जयदेश' अखबार में छपने के लिए अपनी एक रचना इस नाउम्मीदी से प्रेषित की थी कि छपेगी नहीं। मगर हुआ उल्टा। जीवन का प्रथम कीर्तिमान मेरे नाम था। रचना प्रकाशित थी- ''दिल को जलाता हूं बार-बार/ रोशनी नहीं होती... '' मगर वास्तविक रोशनी तलाशने की वह ललक छिप नहीं पायी।
उम्र में मेरे पिताजी से भी चार-पांच साल बड़े, मेरे श्रद्धेय पिताजी के लिए भी श्रद्धेय एक ऐसे महान व्यक्तित्व से परिचय बढ़ा जिनका नाम गुम हो गया था, इसलिए उन्हें 'गुमनाम' नाम से ही ख्याति मिली।मैंने मन ही मन उन्हें 'गुरु' मान लिया। जी, उनका पूरा नाम हरिवंश पाठक है। कभी भी बड़े ही संकोच से , उनके बहुत कुरेदने के बाद जब मैं अपनी कोई नयी रचना सुनाना चाहता...तो भी पूरी की पूरी कविता कभी नहीं सुना पाया। जानना चाहेंगे क्यों? जनाब! कविता के प्रथम छंद की दुरुस्तगी में ही अक्सर शाम हो जाया करती! फिर किसी दूसरे, तीसरे, चौथे दिन होती हुई वही कविता उन तक पहुंचने में महीनों का सफर तय करती। उनकी हरी झंडी मिलती, तब मैं उसे कहीं अन्यत्र सुनाने के काबिल समझता अपने को। बावजूद इसके वे हमेशा मुझे ताकीद करते कुछ और बेहतर विकल्प ढूंढने के। आप मानें या न मानें छन्दशास्त्र का वैसा बोध अभी तक किसी अन्य में (यद्यपि अन्य भी हो सकते हैं) मुझे मिला नहीं। मुझे यह लिखते हुए गर्व हो रहा है कि उन्होंने जो कुछ मुझे दिया उन्हें सहेजने की कोशिश में हूं। क्रमानुसार कई प्रसंगों की चर्चा करनी है।
उन दिनों जमानियां स्टेशन पर मासिक काव्य गोष्ठियों का आयोजन हिंदू इण्टर कॉलेज के शिक्षक बिशनलाल कपूर के आवास पर 'मधुरिमा' नाम से होता था। हर महीने होने वाली उस संगोष्ठी के प्रमुख किरदार थे- 'गुमनाम जी'। नये-नये कवियों की एंट्री और हर बार नई-नई रचनाओं का पाठ उस गोष्ठी की विशेषता थी। उस समय वाराणसी के साहित्य-संसार से भी मेरा लगाव बढ़ गया था। मैं वहीं से आंग्ल साहित्य से स्नातकोत्तर कर रहा था। हर क्षण कविता का स्फुरण। मेरा युवा मन अनेक अभिलाषाओं और महत्वाकांक्षाओं से नित्य रू-ब-रू होता था। कुल मिलाकर मेरे भीतर मेरी कविताओं का स्पंदन तो हो चुका था, मगर उस काव्य-गोष्ठी 'मधुरिमा' एवं कवि 'गुमनाम' के सानिध्य ने मंत्र-शक्ति फूंक दी थी। फिर क्या था गाहे-ब-गाहे आये दिन...मैं 'पाठक मेडिसिन सेण्टर' की तरफ खिंचा चला जाता...दवा खरीदने नहीं...बल्कि गुमनाम जी का स्नेह, कृपा, आशीष और मार्गदर्शन प्राप्त करने, जो आज तक बरसता रहता है...मैं सराबोर होता रहता हूं। आयुर्वेदिक औषधियां जैसे कूट-छानकर बनायी जाती हैं, वैसे ही कविता-सृजन के महारथी 'गुमनाम' का नाम जमानियां के साथ-साथ चलता रहेगा।
सन् 1979 के उत्तरार्ध में मैंने एक डिग्री कॉलेज में नौकरी शुरु कर दी थी। प्रायः उसी राह से आना-जाना होता था। 'कविता' का प्रसाद प्राप्त करना अनिवार्य-सा लगता था। मेरे पिताजी को भी मालूम हो चुका था मेरी इस नयी रुचि के बारे में। 'गुमनाम जी' (यानी पाठक जी) मेरे पिताजी के पाहुन लगते हैं। गाँव के किसी ऐसे रिश्ते की जानकारी मुझे बाद में हुई।
गुमनाम जी का हिन्दी, उर्दू और भोजपुरी की गीत-रचना पर समान अधिकार है। बुढ़ापे में भी गीत, गजल, छन्द की प्रस्तुति के समय उनके गले से उच्चरित ध्वनि उन्हें अब भी जवान होने का प्रमाण-पत्र देती-सी लगती है। उनकी अभिव्यक्ति में गजब का सम्मोहन है, जो श्रोताओं को साथ-साथ गाने के लिए विवश कर देता है। उनकी कुछ गजलों का ऐसा सुरूर होता है कि उनकी कुछ पंक्तियां, उनके गाने से पूर्व, श्रोतागण पहले से ही गुनगुनाने लगते हैं। जैसे-
''सिर्फ तुमने पर्दा उठाया
मरने वालों में क्या हम नहीं थे?"
लगता है कि उनके संग्रह ''दर्दों के छन्द'' की वह गजल उनका संपूर्ण जीवन दर्शन है।
''सागरे लब गुलाबी की खातिर
मेरे अरमान क्या कम नहीं थे।"
ऐसे अनेकों छन्द लोगों के दिलों में घर कर चुके हैं। ऐसे ही गीत-गजलों के अमर रचनाकार-शायर-कवि-गुरु 'गुमनाम' मेरे दिल में मेरे गीतों को अमरत्व प्रदान कर रहे हैं।
यह गुरु कृपा ही है कि विजय शर्मा, गोपाल तन्हा, गुरुदीप निगम, राजेन्द्र सिंह, मोती यादव, वीरेन्द्र सारंग, मदन गोपाल सिन्हा, राजकुमार, संजय कृष्ण, मनज, विनय राय, अनन्त जी, मिथिलेश गहमरी, आदि रचनाकारों का आये दिन जमावड़ा पाठक जी को प्रसन्नता से लबालब भर देता है। वे दूसरों को गौरवान्वित कर गौरव महसूस करते हैं। आतिथ्य सत्कार तो उनकी रग-रग में समाहित है। दर्द की दवा यहीं मिलती है।
मेरे मित्र साहित्यिक लंगोटिया यार वीरेन्द्र सारंग और मेरे ऊपर उनका अनुग्रह अभूतपूर्व रहा है। औरों की बनिस्बत हमारी उपस्थिति की बारंबारता अधिक थी। 'गुमनाम' जी ने (जैसा अन्य सभी महसूस करते हैं)
मुझे और सारंग को इतना स्नेह दिया है कि हमें दांया-बांया माना जाने लगा। पता नहीं हाथ या आँख। वे हमारी रचनाओं को सुनते, मार्गदर्शन देते, पढ़ने का सुझाव देते और इतना प्रोत्साहित करते जैसे हम लोग शीघ्र सिद्धि प्राप्त करने वाले हों। कई बार उनके साथ बाहर के गोष्ठियों और कवि -सम्मेलनों में हमें श्रोता की हैसियत से भी जाना पड़ा। बाद में अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों में भी शिरकत की हम लोगों ने। निश्चित तौर पर जमानियां के साहित्यकाश में अमर रहेंगे गुमनाम जी। स्मृति-पटल पर ढेर सारी यादें अंकित हैं वो फिर कभी...फिलहाल...--
''गुम न होगा नाम, ये कहता जमानियां।
गर न होते तुम, कहां रहता जमानियां।।"

Saturday, June 28, 2008

Tuesday, June 24, 2008

'धूप लिफाफे में' का विमोचन संपन्न




बाबूजी के गीत संग्रह धूप लिफाफे में का विमोचन 22 जून को दोपहर 2 बजे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली में हुआ। इस किताब के विमोचन के मौके पर जाने माने समालोचक मैनेजर पांडे, वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक मधुकर उपाध्याय, प्रख्यात भाषाविद् हेमंत जोशी, जाने माने कवि एवं चित्रकार विज्ञान व्रत, साहित्यकार अनिल जोशी एवं सामाजिक कार्यकर्ता चैतन्य प्रकाश मौजूद रहे। साथ ही दर्शक दीर्घा में साहित्य और पत्रकारिता जगत के सजग प्रहरी मौजूद रहे....।
-विवेक सत्य मित्रम्

Friday, June 20, 2008

स्मृति शेषः स्वर्गीय कुबेरनाथ राय

कहां है वीथिका जमदग्नि की
शत अश्वमेधों की यही धरती
जहां से चक्रमण करती हुई
गंगा पुनः उत्तर को चलती है
मगर थोड़ी-सी सांस लेती है
जहां 'धनुर्वेद का मर्मज्ञ'
फरसा हाथ लेकर
काल-गति से दौड़ता है।
वहीं पर द्रोण प्रत्यंचा संभाले
वाण से पाताल-जल भी फोड़ता है।
वहीं पर ध्यानावस्थित इक 'बटुक'
'बैकुंठ' का करता सृजन है,
जो अपना प्राण प्रण संकल्प है
तन मन है, पूरा धन है,
हमारी आस्था श्रद्धा जिसे करती नमन है।
उसी की अर्चना में
धाम की महिमा सुनाता हूं
उसी श्री नाम की गरिमा गिनाता हूं,
चलो प्रासाद में खोजें कोई कुबेर
जहां पर एक शिल्पी
मौन तप की साधना में रत
सृजन की मोरपंखी तूलिका से
चिरंतन संस्कृति के कोटरों में
इन्द्रधनुषी कल्पना के रंग
इतना भर रहा है
हमारी प्रकृति की संवेदना
होकर तरंगित ढूंढती है ललित लहरों को,
हमारा विरल-विह्वल मन
हिरन-सा ढूंढता है गंध कस्तूरी,
यहीं से बालुका पर
दौड़ता-सा वह हांफता
'मतसा' पहुंचता है
वहीं पर आम्रकुंजों में
तृषा की 'नीलकंठी'
भोजपत्रों पर प्रणय के गीत लिखती है
'अरे पूरब के परदेसी
तू आ जा...कामरुपों की नजर से बच
तू मेरी भंगिमा का भाव पढ़
बोल वह भाषा कि
भारत के हृदय के सिन्धु में
निरंतर चल रहा मंथन',
हमारी आंख खुलती या नहीं खुलती-
हमें लगता हमारा कवि अकेले
पी रहा होता है नीला विष
सुधा का कुम्भ हमको कर समर्पित
हमें बस कुम्भ का अमृत पता है।
जो सत्साहित्य के संपत्ति की गठरी
किसी दधीचि की ठठरी
जिसे ले हम 'किरातों की नदी' में
'चन्द्रमधु' स्नान करके
अमरफल का पान करके
एक आदिम स्वर्ग में है वास करते
सहस्त्रार्जुन सरीखा पीढ़ियों का नाश करते
एक इच्छाधेनु खूंटे से बंधी है-
हमारी शून्यता-
साहित्य के लालित्य से कैसे भरेगी?
मनीषी के हृदय में
त्रासदी की लौ भभकती है
पता है? क्रौंच-वध का तीर
किसके जिस्म को
छलनी किया है ? वही आराध्य मेरा।
विश्वामित्र ने
विश्वासपूर्वक कुछ गढ़ा था
जहां कुछ पीढ़ियों ने कुछ
औ' किसी ने कुछ का कुछ पढ़ा था।
हमारी गहन से होती गहनतम रिक्तियों में
हमारी सघन से होती सघनतम वृत्तियों में
विरल-सा प्रेरणा का
आज किंचित पारदर्शी अक्स उभरता है,
हमारी जिंदगी में
इन्द्रधनुषी रंग निश्चित जो भी भरता है
वही मानव, महामानव
नया भारत हृदय में पालता है।
उसी के नाम अक्षत-पुष्प लेकर हम खड़े हैं
चलाकर चल दिया उसने
उसी संकल्प पर अनवरत चलते रहेंगे।
एक छोटी वर्तिका में
सूर्य की आभा लिए जलते रहेंगे।
वही कुबेर का प्रण था तो उसके हम हैं अटल प्रण,
चलें हम उस मनीषी का करें
हर बार अभिनमन।

Sunday, June 15, 2008

ज़मानियाँ: एक विहंगम दृष्टि

(ज़माने की तेज़ रफ़्तार में भी ज़मानियाँ पर कुछ उड़ती नज़रें देखकर लगा कि उड़ती नज़र को टिकाने के लिए हमें अतीत के झरोखों में झाँकना ही होगा जिससे ज़मानियाँ के धार्मिक, पौराणिक, भौगोलिक, पुरातात्विक, सांस्कृतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक स्वरूप को देखकर उसका वर्तमान संदर्भों में सही मूल्यांकन किया जाय। ज़मानियाँ ज़माने की नज़रों में ज़माने से कितना आगे या कितना पीछे है यह तो ज़माना ही तय करेगा मगर हम ज़मानियाँ के कुछ तथ्यों और सूचनाओं को एकमुश्त शब्दचित्रों के माध्यम से परोसने के फर्ज़ का निर्वाह कर सकते हैं।)

पूर्वी उत्तर प्रदेश में अफ़ीम फैक्ट्री और अफ़ीम की खेती के लिए मशहूर गाज़ीपुर जनपद में ज़मानियाँ एक ऐसी तहसील है जो गंगा और कर्मनाशा नदियों के बीच अवस्थित है। इसे न तो गाज़ीपुर से असंपृक्त किया जा सकता है और ना ही वाराणसी-चंदौली से। क्योंकि उसका पूर्वोत्तर भाग (महाइच परगना) प्राचीन भू-अभिलेखों और मानचित्रों में ज़मानियाँ का ही एक अंग रहा है। मुहम्मदाबाद तहसील को भी इससे अलग नहीं देखा जा सकता क्योंकि इसके भी कई गांव पहले से ही ज़मानियाँ परगना के अंग रहे। यदि लोकसभाई क्षेत्र के हिसाब से देखें तो इसकी व्यापकता बलिया जनपद की सीमा को स्पर्श करती है। कर्मनाशा के इस पार ज़मानियाँ और कर्मनाशा के उस पार बिहार राज्य के दो जनपद भोजपुर-रोहतास। यानी पूर्ण रूप से भोजपुरी अंचल। समतल एवं उपजाऊ ज़मीन। अपनी नैसर्गिकता के कारण इस भूमि ने देश-विदेश की महाविभूतियों को भी अपनी ओर भरसक आकृष्ट किया है।
मुगलसराय-हावड़ा रेलमार्ग पर लगभग
40 किलोमीटर पूरब....ज़मानियाँ रेलवे स्टेशन...यहीं से जनपद गाज़ीपुर की सीमा प्रारंभ होती है। लगभग 30 किमी परिवृत्त में इसका विस्तार....लेकिन ख़ास तौर पर ज़मानियाँ, ज़मानियाँ नगरपालिका (स्टेशन और क़स्बा) दो भागों में विभक्त....लगभग 8 किमी की लंबाई में। यहाँ की कुल आबादी लगभग 60 हज़ार....कुल मतदाता लगभग 25 हज़ार...औद्योगिक विकास के नाम पर शून्य है। फिर भी ज़मानियाँ विकास की असीम संभावनाओं को समेटे हुए है। जहाँ एक गाँव ऐसा भी है जिसे राष्ट्र की सेवा में सिर्फ अग्रणी ही नहीं माना जाता वरन उसे एशिया का सबसे बड़ा गाँव होने का गौरव प्राप्त है.....और वह गाँव है गहमर। बताते चलें कि ज़मानियाँ ज़िला बना की पुरज़ोर माँग वर्षों से सरकार के ठंडे बस्ते में पड़ी है। निश्चित है ज़माने की इस तेज़ रफ़्तार में हमें ढूँढना ही होगा कि आख़िर ज़मानियाँ है कहाँ। आइए ज़मानियाँ के स्वर्णिम अतीत में एक टेलिस्कोपिक दृष्टि डालें....जहाँ प्राचीनकाल से लेकर अब तक बहुतेरे कैलेडिस्कोपिक दृश्य बनते-बिगड़ते रहे हैं...फ़िलहाल ज़मानियाँ के उसी अतीत के सिक्के के एक पहलू पर संक्षिप्त नज़र डालना ज़रुरी है।

गंगा तट पर अवस्थित अत्यंत प्राचीन नगर जमदग्निपुरी...जहाँ माता रेणुका की कोंख से पाँचवें पुत्र के रूप में भगवान परशुराम का जन्म हुआ...(कल्याणके एक पुराने अंक के अनुसार)..जी हाँ, यही है भगवान परशुराम जन्मभूमि....(हाँलाकि उनके जन्म-स्थान को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं है)...उल्लेखनीय है कि निकटवर्ती राजा गाधि की नगरी गाधिपुरी में महर्षि विश्वामित्र का जन्म हुआ था। अपनी प्रबल आस्था के चलते सकलडीहा के राजा वत्स सिंह ने हरपुर नामक स्थान में लगभग 250 वर्षों पूर्व भगवान परशुराम का एक मंदिर स्थापित करवाया जहाँ आज भी अक्षय तृतीया को विशाल जनसमुदाय परशुराम जयंती महोत्सव में हिस्सा लेता है क्योंकि ज़मानियाँ को एक पवित्र तीर्थ-स्थान की मान्यता प्राप्त है।

  1. ग़ौरतलब है कि गंगोत्री से गंगासागर तक के बीच सिर्फ ज़मानियाँ में ही गंगा का जलप्रवाह सीधे उत्तर की ओर है। चक्रमण करती हुई गंगा जिस स्थान से उत्तराभिमुख होती हैं उस स्थान को चक्का बांध कहा जाता है। एकल उत्तर वाहिनी गंगा का एक अलग धार्मिक महत्व माना जाता है।
  2. बौद्ध धर्मावलंबी सम्राट अशोक का शिलालेख युक्त स्तंभ ज़मानियाँ के लठिया ग्राम में स्थित है। इतिहासकारों और पुरातत्ववेत्ताओं की दृष्टि में इस स्तंभ का उतना ही महत्व है जितना सारनाथ (वाराणसी) के अशोक स्तंभ का। इसी स्थान पर प्रति वर्ष 2 फरवरी को लाखों देशी-विदेशी बौद्ध-मतावलंबियों की उपस्थिति में लठिया महोत्सव का आयोजन होता है जो कई दिनों तक चलता है।
  3. एक कालखंड ऐसा भी था जब गहरवार वंश के प्रतापी राजा मदनचंद ने इसी जमदग्निपुरी को अपनी अस्थाई राजधानी बनाया था....जिसे बनारस के समतुल्य खड़ा करने की दिशा में राजा ने इसका नामकरण मदन बनारस कर दिया। कुछ लोगों की मान्यता है कि चेरि राजाओं ने इसका नाम मदन बनारस रखा। मदनपुरा नाम का गाँव बिल्कुल ज़मानियाँ से सटा हुआ है। मदन बनारस जो ज़मानियाँ का पुराना नाम है वह यहाँ के भू-राजस्व अभिलेखों में अब भी मिलता है।
  4. बाबरनामाके अनुसार अपनी विजययात्राओं के दौरान बाबर जमदग्निपुरी अर्थात् मदन बनारस के गंगा किनारे अपनी सैनिक छावनी डाले हुए था। उस समय ज़मानियाँ ज़मानियाँनहीं था।
  5. चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी ज़मानियाँ-गाज़ीपुर अंचल का भ्रमण किया था और वह यहाँ के पराक्रमी और बहादुर लोगों से मिला था। उसे लगा कि यह पराक्रमी और शूरवीरों की धरती है...इसलिए उसने इसका अपनी भाषा में नामकरण कर दिया...मतलब चेन-चू....अर्थात् यही गाज़ीपुर-ज़मानियाँ।
  6. चंद्रकांताऔर भूतनाथजैसे तिलिस्मी साहित्य के रचनाकार बाबू देवकीनन्दन खत्री की जन्म-भूमि ज़मानियाँ ही है। जो बाद में संभवत: अन्यत्र चले गए। जिन तिलिस्मी सुरंगों की चर्चा उनकी पुस्तक में है वे तिलिस्मी सुरंगें ज़मानियाँ से होकर कमालपुर होते हुए विजयगढ़ के किले तक जाती थीं।
  7. भारत प्रसिद्ध माँ कामाख्या मंदिर इसी अंचल के ग्राम गहमर में स्थित है जिसे फतेहपुर सीकरी से मुग़लों द्वारा निर्वासित सीकरवार राजपूतों ने स्थापित कराया था....जहाँ प्रत्येक नवरात्र और सावन महीने में अभूतपूर्व धार्मिक आस्था का जनसैलाब उमड़ पड़ता है। उक्त स्थान सरकार के पर्यटन नक्शे पर दर्ज है।
  8. ज़मानियाँ क़स्बे में उदासीन पंथ का एक अखाड़ा आज भी मौजूद है जहाँ सिख पंथ के गुरु गोविंदसिंह की पत्नी ने गुरुमुखी लिपि में एक हुक्मनामा लिख रखा था। हुक्मनामा आज तक सुरक्षित है।
  9. ज़मानियाँ अंचल का ग्राम बारा मुग़ल बादशाह हुमायूँ और शेरशाह के ऐतिहासिक चौसा युद्ध का साक्षी है जहाँ शेरशाह ने हुमायूँ को पराजित कर दिया था और हुमायूँ भाग खड़ा हुआ।
  10. अलीकुल जमन, जो मुग़लों का सिपहसालार था वह तत्कालीन मदन बनारस (जमदग्निपुरी) में बस गया। बाद में इसी मदन बनारस का नाम बदल कर ज़मन खाँ के नाम पर ज़मानियाँ कर दिया गया।
  11. ज़मानियाँ क्षेत्र का दिलदारनगर गाँव पौराणिक किंवदन्तियाँ समेटे है जहाँ नल-दमयन्ती का एक विशाल तालाब और कोट (ऊंचा टीला) आज तक सुरक्षित है।
  12. लॉर्ड कार्नवालिस ने ज़मानियाँ के ठीक सामने गंगा के उस पार जीवन की अंतिम साँस ली। उस स्थान पर लॉर्ड कार्नवालिस का निर्मित मक़बरा आज भी पर्यटकों के लिए कौतूहल का विषय है।
  13. स्वामी विवेकानन्द इसी गंगा तट पर अवस्थित महान संत पवहारी बाबा के आश्रम में पधारे थे। शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने के पूर्व उन्होंने उस महान संत का आशीर्वाद प्राप्त किया था।
  14. विश्व कवि रवीन्द्र नाथ टैगोर की साहित्य-सृजन यात्रा का एक अविस्मरणीय पड़ाव रहा है ज़मानियाँ-गाज़ीपुर...जहाँ वे ग़ुलाबों की ख़ुशबू से बंधे रहे काफी दिनों तक...और उन्होंने एक पुस्तक मानसीकी रचना कर डाली। गाज़ीपुर की स्मृतियाँ उनके मानस-पटल पर चिरस्थायी बन गईं।
  15. स्थानीय विद्वान पंडित रामनारायण मिश्र द्वारा संस्कृत में लिखी पुस्तक जमदग्नि पंच तीर्थ महात्म्य ज़मानियाँ के धार्मिक एवं सांस्कृतिक गौरव का एक संक्षिप्त दस्तावेज़ है। यह पुस्तक अत्यंत लोकप्रिय हुई जिसका हिंदी अनुवाद जुनेदपुर निवासी पंडित राजनारायण शास्त्री ने किया।
  16. सइतापट्टी के नागा बाबा और चोचकपुर के मौनी बाबा का धाम ठीक ज़मानियाँ घाट के सामने पड़ता है। ये दोनों स्थान आज भी लोगों की श्रद्धा के केंद्र में हैं।
  17. संपूर्ण ज़मानियाँ क्षेत्र मुग़लकालीन धर्मांतरण से काफी प्रभावित रहा और इस्लाम क़बूल करने वालों की संख्या बढ़ी। परिणामस्वरूप एक क्षेत्र विशेष के जाति विशेष ने इस्लाम क़बूल कर अपने को मुसलमान घोषित कर लिया....उस क्षेत्र को कमसार कहा जाता है। इसी अवधि में नवाबों और ज़मींदार घरानों की भी उत्पत्ति हुई। ज़मानियाँ नगर के प्राचीन खंडहर इस बात के सबूत हैं।
  18. आज़ादी के तुरंत बाद गाज़ीपुर के लोकसभा सदस्य विश्वनाथ सिंह ने संसद में इस अंचल की ग़रीबी का चित्रण कर प्रधानमंत्री पं. नेहरु को भी भावुक कर दिया था।
  19. पवित्र गंगा के तट पर बसे इस प्राचीन नगर का बलुआघाट सदियों से जीवन की आखिरी सांस लेने वाले लाखों (प्रतिदिन दर्जनों) के बन्धु-बान्धवों के राम नाम सत्य है का मूक साक्षी है, साथ ही यह श्रावण मास में पूरे दिन और पूरी रात गंगाजल ले जाने वाले काँवरियों के बोल-बम की ध्वनि से गुंजायमान होता रहता है।
  20. साहित्यकार गुरुभक्त सिंह भक्तऔर कवि उस्मान की कर्मभूमि ज़मानियाँ उनके साहित्य-सृजन के लिए प्राण-वायु के समान रहा।
  21. राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के लिए ज़मानियाँ का ग्राम कूसीं एक तीर्थस्थान से कम नहीं था क्योंकि वहाँ प्रख्यात संस्कृतज्ञ पं. रामगोविंद शास्त्री से उन्हें आशीर्वाद प्राप्त करना आवश्यक लगता था।
  22. गोपाल राम गहमरी को उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद का सिर्फ पूर्ववर्ती ही नहीं माना जाता बल्कि उन्हें जासूसी साहित्य के जनक के रूप में भी प्रतिष्टापित किया जाता है।
  23. ज़मानियाँ तहसील का ग्राम गहमर संपूर्ण भारत के लिए राष्ट्रीय गौरव का विषय सिर्फ इसलिए नहीं है कि यह एशिया का सबसे बड़ा गाँव है बल्कि इसलिए भी कि इस गाँव का राष्ट्र की सेवा में बराबरी करने वाला भारत का कोई दूसरा गाँव है ही नहीं।
  24. प्रख्यात सितारवादक पं. रविशंकर ज़मानियाँ (ढ़ढ़नी गाँव) का मूल संबंध एक कत्थक परिवार से रहा है।
  25. भोजपुरी फिल्मों को दिशा देने वाले महान अभिनेता नज़ीर हुसैन किसी परिचय के मोहताज़ नहीं, मगर बताना आवश्यक है कि फिल्मों में जाने के पूर्व उसिया के उस नौजवान ने सुभाषचंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज़ में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
  26. डॉ कपिलदेव द्विवेदी (गहमर) जिन्होंने लगभग 3 दर्जन पुस्तकें संस्कृत में लिखीं। वे गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। इन्हें भारत सरकार ने पद्म विभूषण सम्मान से अलंकृत किया।
  27. ज़मानियाँ से जुड़ी तहसील मुहम्मदाबाद और सैदपुर की महाविभूतियों यथा- संत शिवनारायण, स्वामी सहजानन्द सरस्वती, डॉ मुख्तार अंसारी, डॉ राही मासूम रज़ा और उप-राष्ट्रपति माननीय हामिद अंसारी पर भी हमें गर्व है।

Saturday, June 7, 2008

लोकतंत्र के पथ पर लेटी

- कुमार शैलेन्द्र

संसृति शक्ति स्रोत जननी
सोलह श्रृंगार करो।।

लाल हुई
सोने की चिड़िया,
संस्कृति की डाली,
तीली जली, धुंध उपवन में-
छद्नवेश माली,

तृण-तृण में पागल मन हर क्षण
सागर-सागर भरो।।

साजिश बर्फीली
घाटी में,
भीषण आगजनी,
लोकतंत्र के पथ पर लेटी-
सुरसा नागफनी,

फन विषधर के कुचलो, युग-
चेतन संचार करो।

पंजों में
फिर दु:शासन के
यह आंचल धानी,
छलके नयनों से करुणामय-
क्षार युक्त पानी,

गरजो पांचजन्य, प्रत्यंचा-
नव टंकार करो।

Thursday, June 5, 2008

महंगाई की आग में तेल


महंगाई ने खींच दी अबकी सबकी चूल।
मोहन-मुरली सोनिया बोने लगे बबूल।।

बोतल में जो बन्द था, राजनीति का जिन्न।
बैल मुझे आ मार ले जनता है अब खिन्न।।

दाम बढ़ाकर तेल का ले ली आफत मोल।
न्यौता पूर्ण विपक्ष को चल अब हल्ला बोल।।

डीजल औ' पेट्रोल से इतने गहरे घाव।
गली-गली ललकारती, जल्दी करो चुनाव।।

चौपटराजा राज में इतना बढ़ा अंधेर।
भेड़ बकरियां गुम हुईं कातिल हुआ गंड़ेर।।

खून, तेल से मांगती मनमोहन सरकार।
और अंतड़ियां भूख से रोतीं बुक्का फार।।

छुटभैयों जितना करो धरने औ' हड़ताल।
करवट बदले ऊँट क्या, इतना खस्ताहाल।।

देश बचाओ दोस्तों कांग्रेस कंगाल।
फिर अच्छे दिन आएंगे, होंगे मालामाल।।

दिल्ली की सरकार ने भेजा फौरन फैक्स।
मुख्यमंत्रियों तेल पर नहीं मांगना टैक्स।।


रोटी के लाले पड़े, खाली है अब ज़ेब।
गैस तेल के नाम पर होता रहा फ़रेब।।

खाद्य पदार्थों में लगी आग, आग बाज़ार।
बस्ती-बस्ती धधकती मचती हाहाकार।।

सभी चमेली चाचियां, दस जनपथ से दूर।
रोटी-सी जलने लगी, मस्त रहा तंदूर।।

तेल मूल्य की वृद्धि से इतना तो है साफ।
जनता भारत की उन्हें नहीं करेगी माफ।।

Tuesday, June 3, 2008

वर्षगांठ पर सोनचिरैया

ढीले हो जायेंगे बन्धन
गांठ मगर कस जायेगी,
वर्षगांठ पर सोनचिरैया
क्या-क्या बोल सुनाएगी।।

जलसे हमने जलकर देखे
जल काजल में बदल गया,
जाल संभाले मछुवारा मन
मत्स्यगंध पर फिसल गया,

आगामी सन्तति पुरखों की-
थाती ही खो जाएगी।।

पुष्पक में बैठे हैं हम सब
इन्द्रलोक में जाना है,
अग्निपरीक्षा का भय केवल
कंचन ही निखराना है,

ऊंची-ऊंची सभी उड़ानें-
नीचे ही रह जाएंगी।।

टूटी-बिखरी संज्ञाओं को
आओ क्रियापदों से जोड़ें,
संस्कार की सुप्तभूमि में
बीज विशेषण वाले छोड़ें,

वरना, व्यथा भारती मां की-
कोरी ही रह जाएगी।

काले हुए उजाले सपने



आंखों के अंत:पुर उर में-
इन्द्रधनुष-छवि वाले सपने,
पछुआई की झंझाओं ने-
प्रतिक्षण देश निकाले सपने।

लिखने को क्या नहीं लिखा है
स्वर-व्यंजन की भाषाओं में,
मन का किंतु व्याकरण उल्टा
उलझा सिर्फ तमाशाओं में,

अनुरंजन के विषदंतों से-
कुचले हैं रखवाले सपने।

विश्वामित्र हमारी संस्कृति
यज्ञ देवता के हम साधन,
बिसरे-भूले छंदों में फिर
कर जाएं विस्तृत आराघन,

केसर-कस्तूरी बरसा दे-
मेघ राशि जल वाले सपने।

चंद्रग्रहण-सी थमी झुर्रियां
मेधाओं के माथे फैलीं,
सदियों से होती आई यह
कंचन की थाती मटमैली,

सपनों में हम सपने बोते-
काले हुए उजाले सपने।

Monday, June 2, 2008

ढंको न सिन्दूरी मिट्टी से

नंगे पाँव भले चंगे हैं, नागफनी की पीर को ।
दिन के सपने तोड़ न पाते , सोने की जंजीर को।।

सूँघ गया है साँप
केवड़े की मदमाती गंध को,
नयी टहनियाँ भूल गयी है
माटी की सौगन्ध को,

हवा हादसों को गरियाती, पुरखों की जागीर को।।

द्वार, देहरी, आँगन , घर
नित नये-नये विस्फोट हैं,
मृत अतीत में झाँक रही अब
'अलगू ' की हर चोट है,

घुसा ताजगी में बासीपन, नीबू-रस ज्यों क्षीर को।।

शंकर का विषपान
राम के गौरवमय सोपान सा,
गौतम का हर बोध-स्थल ,
बस अपने हिन्दुस्तान सा ,

ढंको न सिन्दूरी मिट्टी से , तुलसी, नानक, मीर को।।

Sunday, June 1, 2008

खरी-खोटी दोहों की जुबानी-4

कैसे कितना कब कहां कोई भी महफूज़।
मन के आंगन में जहां आतंकों की गूंज।।

चक्की में पिसते रहे बस मज़दूर-किसान।
कुर्की घर की बोलती-बाक़ी क़र्ज-लगान।।

मसिजीवी के हाथ में-जबसे है बंदूक।
टुक़डे-टुकड़े ज़िंदगी-क्या कहती दो-टूक।।

सुर्ख़ रंग की भारती-चीख रही तस्वीर।
तोते मंडन मिश्र के, बांच रहे तकदीर।।

अनगिन हैं बैसाखियां-केवल एक सवार।
सुरसा के मुंह बैठता-जनता के दरबार।।

रोज कमीशन बैठते-करते लंबी जांच।
सच ने अंतिम सांस ली-कहां झूठ को आंच।।

घर में ही घर कर चुके-अपराधों के प्रेत।
क्रूर काल के हाथ से-सरके जैसे रेत।।

कौन किसी से कम यहां, सब हैं अफलातून।
लाठी जिसकी भैंस है, बेचारा कानून।।

फुनगी-फुनगी चढ़ गए, भक्षक तक्षक नाग।
जनमेजय का हो रहा पानी-पानी आग।।

हवा चली फैली यहां आरक्षण की आग।
धुंआ-धुंआ सपने हुए, उजड़े कई सुहाग।।

जो भी अच्छी बात को करते नहीं क़बूल।
जाहिर उनकी ज़िंदगी चलती बिना उसूल।।

चीख रहीं पगडंडियां-गली-गली में शोर।
संसद-सड़कें-कुर्सियां, सच्ची आदमखोर।।

शीशमहल के शीर्ष भी, चूमे जब दहलीज।
लोकतंत्र की रीति की बेशक भली तमीज।।

झूठ कभी पचता नहीं, सच से नहीं निबाह।
ऐसी लंगड़ी सोच का, क्या होगा अल्लाह।।

बेरहम है वक़्त

हो रही है चित्रपट-सी
भंगिमाएं प्यारकी,
आंख में अभिव्यक्ति लहरे
दर्द के संसार की।

लाजवन्ती मानकर
जो तर्जनी पीछे मुड़ी,
वह स्वयं आवृत्तियों से
भंवर-सी औचक जुड़ी,

प्रश्न चर्चामुक्त अब तो
अतिक्रमण-विस्तार की।

शीश पर बांधे कफन
इतिहास की परछाईयां,
खोजती हैं बुलबुलों के
गांव की अमराइयां,

बेरहम है वक़्त जैसे
धार हो तलवार की।

हम टंगे हैं खूंटियों पर
रेशणी बनकर कमीज,
तोड़ जाती बाजुओं तक
सीयने जिनकी तमीज,

यह ग्रहण है ज़िंदगी पर
राहु के परिवार की।

Friday, May 30, 2008

शून्य सृष्टि के माथे पर

हम इन्द्रजाल से डरते हैं,
हम इन्द्रलोक पे मरते हैं।
मरना डरना, डर ना मर ना-
डर-डर, मर-मर कर जीते हैं।

हम पत्थर के सामान नहीं,
हम महलों के दीवान नहीं,
माया की छाया ढो-ढोकर
इन्द्रासन पर पग धरते हैं।

हम इन्द्रदेव की वरुणा हैं,
बादल जल वाली करुणा हैं,
इन्द्रिय-सुख को हम लुटा लूट
तरुणाई लिए विचरते हैं।

सागर-तल के हम दावानल,
हम कुपित इन्द्र के बड़वानल,
हम शून्य सृष्टि के माथे पर-
बन चन्दन-गंध पसरते हैं।

हम इन्द्रधनुष के सात रंग,
चूमते क्षितिज चढ़कर तुरंग,
धरती-आकाश लिये दृग में-
भारत अभिनन्दन करते हैं।

खरी-खोटी दोहों की जुबानी-3

उपलों की दीवाल पर, पुरखों की खपरैल।
ज़र्रा-ज़र्रा ज़िंदगी, होती रही रखैल।।

जनता चिड़िया-सी हुई, सत्ता अजब गुलेल।
अपराधों की छांव में, बढ़े सियासी बेल।।

आजादी के यज्ञ का, तप था पहरेदार।
भारत तो आजाद पर,राक्षस भ्रष्टाचार।।

चेहरे पे चेहरा चढ़ा, ओढ़ खोल पे खोल।
लल्लू पंजू ले छुरी, चले खोलने पोल।।

गांवों से लेकर लहू, दिल्ली करती ऐश।
घोटालों में तोड़ता, दम यह भारत देश।।

गोरखधंधे जो करे, वे ही बड़े हुजूर।
गांव-गरीबों के लिए, दिल्ली अब भी दूर।।

चमचे, बेलचे, खोमचे, चापलूस के भेद।
पीछे, आगे मार लो, वो पैरों की गेंद।।

नेता, अफसर,माफिया, डाकू, गुण्डे, चोर।
इनके पांव पसर गये, भारत अब कमजोर।।

उछल-कूद जितना करो, पकड़े रहो जमीन।
वरना थोथी ज़िंदगी, बस कौड़ी की तीन।।

सोनचिरैया गांव में, होती लहू-लुहान।
घाटी की बंदूक से, घायल हिंदुस्तान।।

देवता के दंभ में

टूट जाने के बहुत खतरे बढ़े हैं,
दर्द के सैलाब बांधों पर चढ़े हैं।

ये लहू गीली लकड़ियां हो गयीं,
आग भी धू-दू कहां जल पाएगी।
तीसरी दुनिया कई फिकरे कसेगी,
वक़्त की संवेदना मर जायेगी।

धमकियों के पत्र बादल के उन्हें हैं-
जिन कणों ने वायुमण्डल को गढ़े हैं।।

एक पल में इन्क़लाबी भीड़ की भी-
हाय, कैसे बंध गयी यूं घिघ्घियां।
देखकर भी देखता है कौन घड़ियां,
हर घड़ी घड़ियाल वाली सिसकियां।

सोमरस से कांच के बर्तन लबालब-
सारसों ने चोंच पर सोने मढ़े हैं।।

गन्धमादन कर रहा पीछा हमारा,
देवता के दंभ में हम चल रहे हैं।
सागरों की ओर जाती हर नदी को-
ढूह के पत्थर सरीखे छल रहे हैं।

पंखुरी पर प्यार की मुसकान अंकित-
और, भीतर ज़हर के तक्षक कढ़े हैं।।

खरी-खोटी दोहों की जुबानी-2

दिल छलनी, मन बैठता, घायल जब अहसास,
तब कुछ कर दिखलाएगी, निकली हुई भड़ास।

भारत साठों साल से तीन टांग पर हुंह,
चौथा खंभा लोक को लगे चिढ़ाता मुंह।

महंगाई की आग में घी, डीजल-पेट्रोल,
मुंह मिट्ठू सरकार की खुल जायेगी पोल।

थपकी अपनी पीठ पर, कानों में दे तेल,
राजनीति की कुर्सियां, करें घिनौना खेल।

चिन्दी चिन्दी हो रहा गांव, गरीब, गंवार,
पांच साल उपलब्धि के, गिना रही सरकार।

गांधीजी के बंदरों, मत कर भ्रष्ट मिजाज,
कसमों-सपनों की जरा, कुछ तो रख लो लाज।

पैसा जब से हो गया, इस युग का भगवान,
स्वर्ग नर्क सा हो गया, मनुज बना हैवान।

ऊंचे-ऊंचे हो रहे शहर अमीर-अमीर,
गांव-गरीबी द्रौपदी, झोपड़ियां है चीर।

लेने में आता मजा, मुट्ठी में कानून,
हिंसक कुत्ते चाटते, भारत मां का खून।

सत्ता सुख में तैरना, सच या बड़ा कमाल,
खोल पाता आंख भी, मुंह खोले घड़ियाल।

खरी - खोटी दोहों की जुबानी

बजटें लोकलुभावनी, मौन हुई सरकार-
सस्ते वोटर झेलते महंगाई की मार।।

बाजारों से पूछ लो, चावल, आंटा, दाल-
बड़े-बड़े खरगोश भी चलते कछुआ चाल।।

चलती भ्रष्टाचार-पथ लोकतंत्र की रेल-
मजलूमों की चीख से कसती नहीं नकेल।।

आसमान छूने लगे, सब चीजों के दाम-
प्रजा नहीं कस पा रही, ढ़ीली भ्रष्ट लगाम।।

मल्टीनेशनल बुद्ध का लाया धन-पैगाम,
आमार सोनार बांग्ला रक्तिम नंदीग्राम।।

सात समंदर क्या यथा- दुखियारों के नैन,
मनमोहन की बंसरी छीन रही है चैन।।

राजनीति की नीचता, सभी एक ही रंग-
टप्पा खाती गिर रही, जनता कटी पतंग।।

यदि कोई भी चाहता, पूरा दाम वसूल-
जोधा अकबर की तरह दे दो फिल्मी तूल।।

संसद बहसों के लिए, रोजाना तैयार-
मगर एक को छोड़कर, मुद्दा 'भ्रष्टाचार'।।

ज़हीनों की महफ़िल

सुलगते ख़्वाब में हर बार जो उंगली उठाता है।
तपिश इतनी तो है, जिससे न मुट्ठी तान पाता है।।

ये दुनिया है तो दो राहें रहेंगी हर घड़ी क़ायम-
थका हर आदमी मंज़िल कहां तक ढूंढ पाता है।।

ज़रा तफ़सील से आबो-हवा का रुख़ समझना है-
जो बैठी डाल पर अफसोस कुल्हाड़ी चलाता है।।

ज़हीनों की भरी महफ़िल में रहना है शगल जिसका-
वो खुशफ़हमी में अदबी ज़ेहन की खिल्ली उड़ाता है।।

अगरचे आइने से रू-ब-रू हो गौर फरमाये-
यकीनन ख़ुद ही अपनी आंख से नज़रें चुराता है।।

ये पानी ज़िंदगी है, मौत है, औ' है वैसा जगह जैसी-
वही चुल्लू भरा पानी, ज़रुरी काम आता है।।

सभी के पांव के छालों के गिनता अक्स जो तन्हा-
किसी हारे जुआरी-सा, ख़ुदी को बरगलाता है।।

कभी तो मुड़के देखेगा, खुली खि़ड़की बड़ी दुनिया-
अंधेरों में जो तीखे लफ़्ज का खंज़र चलाता है।।

मिला ख़त मुद्दतों के बाद, मेरे दोस्त का लिक्खा-
ग़जब फनकार, अन्दर झांकने से कांप जाता है।।

सुलगते ख़्वाब में हर बार जो उंगली उठाता है।
तपिश इतनी तो है, जिससे न मुट्ठी तान पाता है।।

ये दुनिया है तो दो राहें रहेंगी हर घड़ी क़ायम-
थका हर आदमी मंज़िल कहां तक ढूंढ पाता है।।

ज़रा तफ़सील से आबो-हवा का रुख़ समझना है-
जो बैठी डाल पर अफसोस कुल्हाड़ी चलाता है।।

ज़हीनों की भरी महफ़िल में रहना है शगल जिसका-
वो खुशफ़हमी में अदबी ज़ेहन की खिल्ली उड़ाता है।।

अगरचे आइने से रू-ब-रू हो गौर फरमाये-
यकीनन ख़ुद ही अपनी आंख से नज़रें चुराता है।।

ये पानी ज़िंदगी है, मौत है, ' है वैसा जगह जैसी-
वही चुल्लू भरा पानी, ज़रुरी काम आता है।।

सभी के पांव के छालों के गिनता अक्स जो तन्हा-
किसी हारे जुआरी-सा, ख़ुदी को बरगलाता है।।

कभी तो मुड़के देखेगा, खुली खि़ड़की बड़ी दुनिया-
अंधेरों में जो तीखे लफ़्ज का खंज़र चलाता है।।

मिला ख़त मुद्दतों के बाद, मेरे दोस्त का लिक्खा-
ग़जब फनकार, अन्दर झांकने से कांप जाता है।।

मीडिया बेलाग तो हो पर बेलगाम नहीं

'ब्लॉग्स' के माध्यम से अभिव्यक्ति की स्वच्छता देखकर मन आहत हुआ। मीडिया से जुड़े स्वनामधन्य पत्रकारों की आत्मश्लाघा, आरोप-प्रत्यारोप, निन्दा-भर्त्सना, चुगली-चाटुकारिता, प्रलाप-विलाप से परिपूर्ण प्रतिक्रियाएं आम आदमी के मन में 'चौथे स्तंभ' की धारणा को चकनाचूर करती हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाली जनता के मन में 'चौथे स्तंभ' के प्रति श्रेष्ठ भाव है। मगर चौथा स्तंभ क्या अपनी स्वस्थ भूमिका का निर्वहन कर पा रहा है? क्या लोकतंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के उन्मूलन के बिना गौरवशाली भारत का निर्माण संभव है। वर्तमान में इलेक्ट्रानिक मीडिया के मजबूत कन्धों की जरुरत है। उसे अन्तर्कलह से बचना होगा।.....कीचड़ उछालने से कीचड़ की सफाई नहीं हो पाएगी। अभिव्यक्ति की आजादी का अर्थ केवल स्वच्छंदता नहीं...गाली-गलौज नहीं होना चाहिए। आत्ममुग्धता के कलेवर में फंसी पत्रकारों की दुनिया की भाषा बेशक 'बेलाग' तो हो, पर 'बेलाग' न हो........। ब्लॉग के माध्यम से इतनी तो अपेक्षा अवश्य है कि कटुतापूर्ण वातावरण निर्मित करके न तो आपका भला हो सकता है...और न ही शेष समाज का....जिसे आप हेय समझते हैं।

Saturday, May 24, 2008

पापग्रहों से नज़र

-कुमार शैलेन्द्र

नागयज्ञ ने आदर्शों की
रस्म निभा ली है।
कद्रू के बेटों ने जब भी
डोर संभाली है।

नंगे संवादों ने पहने
हैं असली बाना,
अलादीन वाले चिराग का
बुझना, जल जाना,

काली करतूते हैं, जिनके-
मुंह पर लाली है।

मदराचल से मरु मंथन की
क्या उपलब्धि गिनें,
गुबरैलों की अंगुलियों में
यौवन रक्त सने,

हेमपुष्प की दाहकता ने
आग लगा ली है।

मंजिल का कुछ पता नहीं है
पथ की क्या दूरी,
उलझन कठिन, कठिनतर उससे
मेंहदी-मजबूरी,

माली ने ही नन्दन वन की
गंध चुरा ली है।

अन्तर्व्यथा समय सीपी की
मोती क्या जाने,
मान सरोवर का पांखी
निर्मलता पहचाने,

दिनकर ने कुछ पापग्रहों से
नज़र मिला ली है।।

Friday, May 23, 2008

पाल बाँधना छोड़ दिया

-कुमार शैलेन्द्र

पाल बाँधना
छोड़ दिया है
जब से मैंने नाव में,
मची हुई है
अफरा-तफरी,
मछुआरों के गाँव में ।।

आवारागर्दी में बादल
मौसम भी
लफ्फाज हुआ,
सतरंगी खामोशी ओढ़े
सूरज
इश्क मिजाज हुआ,

आग उगलती
नालें ठहरीं,
अक्षयवट की छाँव में ।।

लुका-छिपी के
खेल-खेल में
टूटे अपने कई घरौदें,
औने-पौने
मोल भाव में
चादर के सौदे पर सौदे,

लक्ष्यवेध का
बाजारू मन,
घुटता रहा पड़ाव में ।।

तेजाबी संदेशों में गुम
हैं तकदीरें
फूलों की,
हवा हमारे घर को तोड़े
साँकल नहीं
उसूलों की,

शहतूतों पर
पलने वाले,
बिगड़ रहे अलगाव में ।।

Thursday, May 22, 2008

द्वन्द्व सिरहाने खड़ा

- कुमार शैलेन्द्र

तृण हुआ है बोझ मन का,
द्वन्द्व सिरहाने खड़ा है ।।

मौज में बैठे रहे
आहूत-अभ्यागत सभी,
अग्नि में स्वाहा हुआ है
इक तथागत ही अभी ।

मंत्र पूजित सिन्धुघाटी में
कहीं मु्र्दा गड़ा है ।।

तेज झोंका चल रहा है
धूप पानी बन्द है,
पंखुरी की भित्तियों में
मन-भ्रमर निस्पंद है ।

काल-जल की त्रासदी में
युग-मगर कितना बड़ा है ।।

जब समय की मुट्ठियाँ भी
आप ही कस जाएँगी,
पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ तब
सीढ़ियाँ बन जाएँगी ।

अंकुरण के दूध में ही-
जहर का छींटा पड़ा है ।।

हौसले भी पस्त हैं
औ' प्रेरणा झुलसी हुई है,
मंत्रणा हर यंत्रणा से
आज तक उलझी हुई है ।

चेतना का मौन चेतक
अस्तबल में क्यूँ अड़ा है ।।

बाँध परिचय-पत्र में
उत्तम विशेषण के पुलिन्दे,
घात में बैठे शिकारी,
देखकर नन्हे परिन्दे ।

इक तमाचा पंछियों के
गाल पर किसने जड़ा है ।।

सत्य को अभिशप्त करके
कील ठोंकी जा रही है,
इस क्षितिज पर लाल रेखा-
धुंध बन मंडरा रही है ।

रिस रहा पौरुष का पानी-
द्वार पर फूटा घड़ा है ।।

Wednesday, May 21, 2008

बारूदी फसलों से

- कुमार शैलेन्द्र

गीतों की गन्ध
कौन हवा उड़ा ले गयी,
बारुदी फसलों से-
खेत लहलहा गए।
अनजाने बादल,
मुंडेरों पर छा गए ।।

मर्यादा लक्ष्मण की
हम सबने तोड़ दी,
सोने के हिरनों से
गांठ नई जोड़ दी,

रावण के मायावी,
दृश्य हमें भा गए ।।

स्मृति की गलियों में,
कड़वाहट आई है,
बर्फीली घाटी की
झील बौखलाई है,

विष के संवादों के
परचम लहरा गए ।।

बुलबुल के गांव धूप
दबे पांव आती है,
बरसों से वर्दी में
ठिठुर दुबक जाती है,

अन्तस के पार तक
चिनार डबडबा गए ।।

टेसू की छाती पर
संगीनें आवारा,
पर्वत के मस्तक पर
लोहित है फव्वारा,

राजकुंवर सपनों में
हिचकोले खा गए ।।