
आंखों के अंत:पुर उर में-
इन्द्रधनुष-छवि वाले सपने,
पछुआई की झंझाओं ने-
प्रतिक्षण देश निकाले सपने।
लिखने को क्या नहीं लिखा है
स्वर-व्यंजन की भाषाओं में,
मन का किंतु व्याकरण उल्टा
उलझा सिर्फ तमाशाओं में,
अनुरंजन के विषदंतों से-
कुचले हैं रखवाले सपने।
विश्वामित्र हमारी संस्कृति
यज्ञ देवता के हम साधन,
बिसरे-भूले छंदों में फिर
कर जाएं विस्तृत आराघन,
केसर-कस्तूरी बरसा दे-
मेघ राशि जल वाले सपने।
चंद्रग्रहण-सी थमी झुर्रियां
मेधाओं के माथे फैलीं,
सदियों से होती आई यह
कंचन की थाती मटमैली,
सपनों में हम सपने बोते-
काले हुए उजाले सपने।
3 comments:
शैलेन्द्र जी
कविता का एक एक शब्द हीरे की तरह जड़ा हुआ लगता है. विलक्षण रचना है आप की. भाव और शब्द का ऐसा संगम बहुत कम देखने को मिलता है. बधाई.
नीरज
जितना प्यारा ब्लॉग का नाम, उससे उम्दा रचना पढ़ने को मिली।
भाषा पर गहरी पकड..गहरी और सुन्दर रचना।
***राजीव रंजन प्रसाद
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