Friday, May 30, 2008

शून्य सृष्टि के माथे पर

हम इन्द्रजाल से डरते हैं,
हम इन्द्रलोक पे मरते हैं।
मरना डरना, डर ना मर ना-
डर-डर, मर-मर कर जीते हैं।

हम पत्थर के सामान नहीं,
हम महलों के दीवान नहीं,
माया की छाया ढो-ढोकर
इन्द्रासन पर पग धरते हैं।

हम इन्द्रदेव की वरुणा हैं,
बादल जल वाली करुणा हैं,
इन्द्रिय-सुख को हम लुटा लूट
तरुणाई लिए विचरते हैं।

सागर-तल के हम दावानल,
हम कुपित इन्द्र के बड़वानल,
हम शून्य सृष्टि के माथे पर-
बन चन्दन-गंध पसरते हैं।

हम इन्द्रधनुष के सात रंग,
चूमते क्षितिज चढ़कर तुरंग,
धरती-आकाश लिये दृग में-
भारत अभिनन्दन करते हैं।

खरी-खोटी दोहों की जुबानी-3

उपलों की दीवाल पर, पुरखों की खपरैल।
ज़र्रा-ज़र्रा ज़िंदगी, होती रही रखैल।।

जनता चिड़िया-सी हुई, सत्ता अजब गुलेल।
अपराधों की छांव में, बढ़े सियासी बेल।।

आजादी के यज्ञ का, तप था पहरेदार।
भारत तो आजाद पर,राक्षस भ्रष्टाचार।।

चेहरे पे चेहरा चढ़ा, ओढ़ खोल पे खोल।
लल्लू पंजू ले छुरी, चले खोलने पोल।।

गांवों से लेकर लहू, दिल्ली करती ऐश।
घोटालों में तोड़ता, दम यह भारत देश।।

गोरखधंधे जो करे, वे ही बड़े हुजूर।
गांव-गरीबों के लिए, दिल्ली अब भी दूर।।

चमचे, बेलचे, खोमचे, चापलूस के भेद।
पीछे, आगे मार लो, वो पैरों की गेंद।।

नेता, अफसर,माफिया, डाकू, गुण्डे, चोर।
इनके पांव पसर गये, भारत अब कमजोर।।

उछल-कूद जितना करो, पकड़े रहो जमीन।
वरना थोथी ज़िंदगी, बस कौड़ी की तीन।।

सोनचिरैया गांव में, होती लहू-लुहान।
घाटी की बंदूक से, घायल हिंदुस्तान।।

देवता के दंभ में

टूट जाने के बहुत खतरे बढ़े हैं,
दर्द के सैलाब बांधों पर चढ़े हैं।

ये लहू गीली लकड़ियां हो गयीं,
आग भी धू-दू कहां जल पाएगी।
तीसरी दुनिया कई फिकरे कसेगी,
वक़्त की संवेदना मर जायेगी।

धमकियों के पत्र बादल के उन्हें हैं-
जिन कणों ने वायुमण्डल को गढ़े हैं।।

एक पल में इन्क़लाबी भीड़ की भी-
हाय, कैसे बंध गयी यूं घिघ्घियां।
देखकर भी देखता है कौन घड़ियां,
हर घड़ी घड़ियाल वाली सिसकियां।

सोमरस से कांच के बर्तन लबालब-
सारसों ने चोंच पर सोने मढ़े हैं।।

गन्धमादन कर रहा पीछा हमारा,
देवता के दंभ में हम चल रहे हैं।
सागरों की ओर जाती हर नदी को-
ढूह के पत्थर सरीखे छल रहे हैं।

पंखुरी पर प्यार की मुसकान अंकित-
और, भीतर ज़हर के तक्षक कढ़े हैं।।

खरी-खोटी दोहों की जुबानी-2

दिल छलनी, मन बैठता, घायल जब अहसास,
तब कुछ कर दिखलाएगी, निकली हुई भड़ास।

भारत साठों साल से तीन टांग पर हुंह,
चौथा खंभा लोक को लगे चिढ़ाता मुंह।

महंगाई की आग में घी, डीजल-पेट्रोल,
मुंह मिट्ठू सरकार की खुल जायेगी पोल।

थपकी अपनी पीठ पर, कानों में दे तेल,
राजनीति की कुर्सियां, करें घिनौना खेल।

चिन्दी चिन्दी हो रहा गांव, गरीब, गंवार,
पांच साल उपलब्धि के, गिना रही सरकार।

गांधीजी के बंदरों, मत कर भ्रष्ट मिजाज,
कसमों-सपनों की जरा, कुछ तो रख लो लाज।

पैसा जब से हो गया, इस युग का भगवान,
स्वर्ग नर्क सा हो गया, मनुज बना हैवान।

ऊंचे-ऊंचे हो रहे शहर अमीर-अमीर,
गांव-गरीबी द्रौपदी, झोपड़ियां है चीर।

लेने में आता मजा, मुट्ठी में कानून,
हिंसक कुत्ते चाटते, भारत मां का खून।

सत्ता सुख में तैरना, सच या बड़ा कमाल,
खोल पाता आंख भी, मुंह खोले घड़ियाल।

खरी - खोटी दोहों की जुबानी

बजटें लोकलुभावनी, मौन हुई सरकार-
सस्ते वोटर झेलते महंगाई की मार।।

बाजारों से पूछ लो, चावल, आंटा, दाल-
बड़े-बड़े खरगोश भी चलते कछुआ चाल।।

चलती भ्रष्टाचार-पथ लोकतंत्र की रेल-
मजलूमों की चीख से कसती नहीं नकेल।।

आसमान छूने लगे, सब चीजों के दाम-
प्रजा नहीं कस पा रही, ढ़ीली भ्रष्ट लगाम।।

मल्टीनेशनल बुद्ध का लाया धन-पैगाम,
आमार सोनार बांग्ला रक्तिम नंदीग्राम।।

सात समंदर क्या यथा- दुखियारों के नैन,
मनमोहन की बंसरी छीन रही है चैन।।

राजनीति की नीचता, सभी एक ही रंग-
टप्पा खाती गिर रही, जनता कटी पतंग।।

यदि कोई भी चाहता, पूरा दाम वसूल-
जोधा अकबर की तरह दे दो फिल्मी तूल।।

संसद बहसों के लिए, रोजाना तैयार-
मगर एक को छोड़कर, मुद्दा 'भ्रष्टाचार'।।

ज़हीनों की महफ़िल

सुलगते ख़्वाब में हर बार जो उंगली उठाता है।
तपिश इतनी तो है, जिससे न मुट्ठी तान पाता है।।

ये दुनिया है तो दो राहें रहेंगी हर घड़ी क़ायम-
थका हर आदमी मंज़िल कहां तक ढूंढ पाता है।।

ज़रा तफ़सील से आबो-हवा का रुख़ समझना है-
जो बैठी डाल पर अफसोस कुल्हाड़ी चलाता है।।

ज़हीनों की भरी महफ़िल में रहना है शगल जिसका-
वो खुशफ़हमी में अदबी ज़ेहन की खिल्ली उड़ाता है।।

अगरचे आइने से रू-ब-रू हो गौर फरमाये-
यकीनन ख़ुद ही अपनी आंख से नज़रें चुराता है।।

ये पानी ज़िंदगी है, मौत है, औ' है वैसा जगह जैसी-
वही चुल्लू भरा पानी, ज़रुरी काम आता है।।

सभी के पांव के छालों के गिनता अक्स जो तन्हा-
किसी हारे जुआरी-सा, ख़ुदी को बरगलाता है।।

कभी तो मुड़के देखेगा, खुली खि़ड़की बड़ी दुनिया-
अंधेरों में जो तीखे लफ़्ज का खंज़र चलाता है।।

मिला ख़त मुद्दतों के बाद, मेरे दोस्त का लिक्खा-
ग़जब फनकार, अन्दर झांकने से कांप जाता है।।

सुलगते ख़्वाब में हर बार जो उंगली उठाता है।
तपिश इतनी तो है, जिससे न मुट्ठी तान पाता है।।

ये दुनिया है तो दो राहें रहेंगी हर घड़ी क़ायम-
थका हर आदमी मंज़िल कहां तक ढूंढ पाता है।।

ज़रा तफ़सील से आबो-हवा का रुख़ समझना है-
जो बैठी डाल पर अफसोस कुल्हाड़ी चलाता है।।

ज़हीनों की भरी महफ़िल में रहना है शगल जिसका-
वो खुशफ़हमी में अदबी ज़ेहन की खिल्ली उड़ाता है।।

अगरचे आइने से रू-ब-रू हो गौर फरमाये-
यकीनन ख़ुद ही अपनी आंख से नज़रें चुराता है।।

ये पानी ज़िंदगी है, मौत है, ' है वैसा जगह जैसी-
वही चुल्लू भरा पानी, ज़रुरी काम आता है।।

सभी के पांव के छालों के गिनता अक्स जो तन्हा-
किसी हारे जुआरी-सा, ख़ुदी को बरगलाता है।।

कभी तो मुड़के देखेगा, खुली खि़ड़की बड़ी दुनिया-
अंधेरों में जो तीखे लफ़्ज का खंज़र चलाता है।।

मिला ख़त मुद्दतों के बाद, मेरे दोस्त का लिक्खा-
ग़जब फनकार, अन्दर झांकने से कांप जाता है।।

मीडिया बेलाग तो हो पर बेलगाम नहीं

'ब्लॉग्स' के माध्यम से अभिव्यक्ति की स्वच्छता देखकर मन आहत हुआ। मीडिया से जुड़े स्वनामधन्य पत्रकारों की आत्मश्लाघा, आरोप-प्रत्यारोप, निन्दा-भर्त्सना, चुगली-चाटुकारिता, प्रलाप-विलाप से परिपूर्ण प्रतिक्रियाएं आम आदमी के मन में 'चौथे स्तंभ' की धारणा को चकनाचूर करती हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास रखने वाली जनता के मन में 'चौथे स्तंभ' के प्रति श्रेष्ठ भाव है। मगर चौथा स्तंभ क्या अपनी स्वस्थ भूमिका का निर्वहन कर पा रहा है? क्या लोकतंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के उन्मूलन के बिना गौरवशाली भारत का निर्माण संभव है। वर्तमान में इलेक्ट्रानिक मीडिया के मजबूत कन्धों की जरुरत है। उसे अन्तर्कलह से बचना होगा।.....कीचड़ उछालने से कीचड़ की सफाई नहीं हो पाएगी। अभिव्यक्ति की आजादी का अर्थ केवल स्वच्छंदता नहीं...गाली-गलौज नहीं होना चाहिए। आत्ममुग्धता के कलेवर में फंसी पत्रकारों की दुनिया की भाषा बेशक 'बेलाग' तो हो, पर 'बेलाग' न हो........। ब्लॉग के माध्यम से इतनी तो अपेक्षा अवश्य है कि कटुतापूर्ण वातावरण निर्मित करके न तो आपका भला हो सकता है...और न ही शेष समाज का....जिसे आप हेय समझते हैं।

Saturday, May 24, 2008

पापग्रहों से नज़र

-कुमार शैलेन्द्र

नागयज्ञ ने आदर्शों की
रस्म निभा ली है।
कद्रू के बेटों ने जब भी
डोर संभाली है।

नंगे संवादों ने पहने
हैं असली बाना,
अलादीन वाले चिराग का
बुझना, जल जाना,

काली करतूते हैं, जिनके-
मुंह पर लाली है।

मदराचल से मरु मंथन की
क्या उपलब्धि गिनें,
गुबरैलों की अंगुलियों में
यौवन रक्त सने,

हेमपुष्प की दाहकता ने
आग लगा ली है।

मंजिल का कुछ पता नहीं है
पथ की क्या दूरी,
उलझन कठिन, कठिनतर उससे
मेंहदी-मजबूरी,

माली ने ही नन्दन वन की
गंध चुरा ली है।

अन्तर्व्यथा समय सीपी की
मोती क्या जाने,
मान सरोवर का पांखी
निर्मलता पहचाने,

दिनकर ने कुछ पापग्रहों से
नज़र मिला ली है।।

Friday, May 23, 2008

पाल बाँधना छोड़ दिया

-कुमार शैलेन्द्र

पाल बाँधना
छोड़ दिया है
जब से मैंने नाव में,
मची हुई है
अफरा-तफरी,
मछुआरों के गाँव में ।।

आवारागर्दी में बादल
मौसम भी
लफ्फाज हुआ,
सतरंगी खामोशी ओढ़े
सूरज
इश्क मिजाज हुआ,

आग उगलती
नालें ठहरीं,
अक्षयवट की छाँव में ।।

लुका-छिपी के
खेल-खेल में
टूटे अपने कई घरौदें,
औने-पौने
मोल भाव में
चादर के सौदे पर सौदे,

लक्ष्यवेध का
बाजारू मन,
घुटता रहा पड़ाव में ।।

तेजाबी संदेशों में गुम
हैं तकदीरें
फूलों की,
हवा हमारे घर को तोड़े
साँकल नहीं
उसूलों की,

शहतूतों पर
पलने वाले,
बिगड़ रहे अलगाव में ।।

Thursday, May 22, 2008

द्वन्द्व सिरहाने खड़ा

- कुमार शैलेन्द्र

तृण हुआ है बोझ मन का,
द्वन्द्व सिरहाने खड़ा है ।।

मौज में बैठे रहे
आहूत-अभ्यागत सभी,
अग्नि में स्वाहा हुआ है
इक तथागत ही अभी ।

मंत्र पूजित सिन्धुघाटी में
कहीं मु्र्दा गड़ा है ।।

तेज झोंका चल रहा है
धूप पानी बन्द है,
पंखुरी की भित्तियों में
मन-भ्रमर निस्पंद है ।

काल-जल की त्रासदी में
युग-मगर कितना बड़ा है ।।

जब समय की मुट्ठियाँ भी
आप ही कस जाएँगी,
पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ तब
सीढ़ियाँ बन जाएँगी ।

अंकुरण के दूध में ही-
जहर का छींटा पड़ा है ।।

हौसले भी पस्त हैं
औ' प्रेरणा झुलसी हुई है,
मंत्रणा हर यंत्रणा से
आज तक उलझी हुई है ।

चेतना का मौन चेतक
अस्तबल में क्यूँ अड़ा है ।।

बाँध परिचय-पत्र में
उत्तम विशेषण के पुलिन्दे,
घात में बैठे शिकारी,
देखकर नन्हे परिन्दे ।

इक तमाचा पंछियों के
गाल पर किसने जड़ा है ।।

सत्य को अभिशप्त करके
कील ठोंकी जा रही है,
इस क्षितिज पर लाल रेखा-
धुंध बन मंडरा रही है ।

रिस रहा पौरुष का पानी-
द्वार पर फूटा घड़ा है ।।

Wednesday, May 21, 2008

बारूदी फसलों से

- कुमार शैलेन्द्र

गीतों की गन्ध
कौन हवा उड़ा ले गयी,
बारुदी फसलों से-
खेत लहलहा गए।
अनजाने बादल,
मुंडेरों पर छा गए ।।

मर्यादा लक्ष्मण की
हम सबने तोड़ दी,
सोने के हिरनों से
गांठ नई जोड़ दी,

रावण के मायावी,
दृश्य हमें भा गए ।।

स्मृति की गलियों में,
कड़वाहट आई है,
बर्फीली घाटी की
झील बौखलाई है,

विष के संवादों के
परचम लहरा गए ।।

बुलबुल के गांव धूप
दबे पांव आती है,
बरसों से वर्दी में
ठिठुर दुबक जाती है,

अन्तस के पार तक
चिनार डबडबा गए ।।

टेसू की छाती पर
संगीनें आवारा,
पर्वत के मस्तक पर
लोहित है फव्वारा,

राजकुंवर सपनों में
हिचकोले खा गए ।।