Monday, June 2, 2008

ढंको न सिन्दूरी मिट्टी से

नंगे पाँव भले चंगे हैं, नागफनी की पीर को ।
दिन के सपने तोड़ न पाते , सोने की जंजीर को।।

सूँघ गया है साँप
केवड़े की मदमाती गंध को,
नयी टहनियाँ भूल गयी है
माटी की सौगन्ध को,

हवा हादसों को गरियाती, पुरखों की जागीर को।।

द्वार, देहरी, आँगन , घर
नित नये-नये विस्फोट हैं,
मृत अतीत में झाँक रही अब
'अलगू ' की हर चोट है,

घुसा ताजगी में बासीपन, नीबू-रस ज्यों क्षीर को।।

शंकर का विषपान
राम के गौरवमय सोपान सा,
गौतम का हर बोध-स्थल ,
बस अपने हिन्दुस्तान सा ,

ढंको न सिन्दूरी मिट्टी से , तुलसी, नानक, मीर को।।

1 comment:

Udan Tashtari said...

बहुत खूब.