Thursday, May 22, 2008

द्वन्द्व सिरहाने खड़ा

- कुमार शैलेन्द्र

तृण हुआ है बोझ मन का,
द्वन्द्व सिरहाने खड़ा है ।।

मौज में बैठे रहे
आहूत-अभ्यागत सभी,
अग्नि में स्वाहा हुआ है
इक तथागत ही अभी ।

मंत्र पूजित सिन्धुघाटी में
कहीं मु्र्दा गड़ा है ।।

तेज झोंका चल रहा है
धूप पानी बन्द है,
पंखुरी की भित्तियों में
मन-भ्रमर निस्पंद है ।

काल-जल की त्रासदी में
युग-मगर कितना बड़ा है ।।

जब समय की मुट्ठियाँ भी
आप ही कस जाएँगी,
पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ तब
सीढ़ियाँ बन जाएँगी ।

अंकुरण के दूध में ही-
जहर का छींटा पड़ा है ।।

हौसले भी पस्त हैं
औ' प्रेरणा झुलसी हुई है,
मंत्रणा हर यंत्रणा से
आज तक उलझी हुई है ।

चेतना का मौन चेतक
अस्तबल में क्यूँ अड़ा है ।।

बाँध परिचय-पत्र में
उत्तम विशेषण के पुलिन्दे,
घात में बैठे शिकारी,
देखकर नन्हे परिन्दे ।

इक तमाचा पंछियों के
गाल पर किसने जड़ा है ।।

सत्य को अभिशप्त करके
कील ठोंकी जा रही है,
इस क्षितिज पर लाल रेखा-
धुंध बन मंडरा रही है ।

रिस रहा पौरुष का पानी-
द्वार पर फूटा घड़ा है ।।

1 comment:

Udan Tashtari said...

सत्य को अभिशप्त करके
कील ठोंकी जा रही है,
इस क्षितिज पर लाल रेखा-
धुंध बन मंडरा रही है ।

रिस रहा पौरुष का पानी-
द्वार पर फूटा घड़ा है ।।


--वाह! बहुत उम्दा.