- कुमार शैलेन्द्र
तृण हुआ है बोझ मन का,
द्वन्द्व सिरहाने खड़ा है ।।
मौज में बैठे रहे
आहूत-अभ्यागत सभी,
अग्नि में स्वाहा हुआ है
इक तथागत ही अभी ।
मंत्र पूजित सिन्धुघाटी में
कहीं मु्र्दा गड़ा है ।।
तेज झोंका चल रहा है
धूप पानी बन्द है,
पंखुरी की भित्तियों में
मन-भ्रमर निस्पंद है ।
काल-जल की त्रासदी में
युग-मगर कितना बड़ा है ।।
जब समय की मुट्ठियाँ भी
आप ही कस जाएँगी,
पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ तब
सीढ़ियाँ बन जाएँगी ।
अंकुरण के दूध में ही-
जहर का छींटा पड़ा है ।।
हौसले भी पस्त हैं
औ' प्रेरणा झुलसी हुई है,
मंत्रणा हर यंत्रणा से
आज तक उलझी हुई है ।
चेतना का मौन चेतक
अस्तबल में क्यूँ अड़ा है ।।
बाँध परिचय-पत्र में
उत्तम विशेषण के पुलिन्दे,
घात में बैठे शिकारी,
देखकर नन्हे परिन्दे ।
इक तमाचा पंछियों के
गाल पर किसने जड़ा है ।।
सत्य को अभिशप्त करके
कील ठोंकी जा रही है,
इस क्षितिज पर लाल रेखा-
धुंध बन मंडरा रही है ।
रिस रहा पौरुष का पानी-
द्वार पर फूटा घड़ा है ।।
Thursday, May 22, 2008
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सत्य को अभिशप्त करके
कील ठोंकी जा रही है,
इस क्षितिज पर लाल रेखा-
धुंध बन मंडरा रही है ।
रिस रहा पौरुष का पानी-
द्वार पर फूटा घड़ा है ।।
--वाह! बहुत उम्दा.
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