टूट जाने के बहुत खतरे बढ़े हैं,
दर्द के सैलाब बांधों पर चढ़े हैं।
ये लहू गीली लकड़ियां हो गयीं,
आग भी धू-दू कहां जल पाएगी।
तीसरी दुनिया कई फिकरे कसेगी,
वक़्त की संवेदना मर जायेगी।
धमकियों के पत्र बादल के उन्हें हैं-
जिन कणों ने वायुमण्डल को गढ़े हैं।।
एक पल में इन्क़लाबी भीड़ की भी-
हाय, कैसे बंध गयी यूं घिघ्घियां।
देखकर भी देखता है कौन घड़ियां,
हर घड़ी घड़ियाल वाली सिसकियां।
सोमरस से कांच के बर्तन लबालब-
सारसों ने चोंच पर सोने मढ़े हैं।।
गन्धमादन कर रहा पीछा हमारा,
देवता के दंभ में हम चल रहे हैं।
सागरों की ओर जाती हर नदी को-
ढूह के पत्थर सरीखे छल रहे हैं।
पंखुरी पर प्यार की मुसकान अंकित-
और, भीतर ज़हर के तक्षक कढ़े हैं।।
Friday, May 30, 2008
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