Friday, May 30, 2008

खरी - खोटी दोहों की जुबानी

बजटें लोकलुभावनी, मौन हुई सरकार-
सस्ते वोटर झेलते महंगाई की मार।।

बाजारों से पूछ लो, चावल, आंटा, दाल-
बड़े-बड़े खरगोश भी चलते कछुआ चाल।।

चलती भ्रष्टाचार-पथ लोकतंत्र की रेल-
मजलूमों की चीख से कसती नहीं नकेल।।

आसमान छूने लगे, सब चीजों के दाम-
प्रजा नहीं कस पा रही, ढ़ीली भ्रष्ट लगाम।।

मल्टीनेशनल बुद्ध का लाया धन-पैगाम,
आमार सोनार बांग्ला रक्तिम नंदीग्राम।।

सात समंदर क्या यथा- दुखियारों के नैन,
मनमोहन की बंसरी छीन रही है चैन।।

राजनीति की नीचता, सभी एक ही रंग-
टप्पा खाती गिर रही, जनता कटी पतंग।।

यदि कोई भी चाहता, पूरा दाम वसूल-
जोधा अकबर की तरह दे दो फिल्मी तूल।।

संसद बहसों के लिए, रोजाना तैयार-
मगर एक को छोड़कर, मुद्दा 'भ्रष्टाचार'।।

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