Friday, May 30, 2008

शून्य सृष्टि के माथे पर

हम इन्द्रजाल से डरते हैं,
हम इन्द्रलोक पे मरते हैं।
मरना डरना, डर ना मर ना-
डर-डर, मर-मर कर जीते हैं।

हम पत्थर के सामान नहीं,
हम महलों के दीवान नहीं,
माया की छाया ढो-ढोकर
इन्द्रासन पर पग धरते हैं।

हम इन्द्रदेव की वरुणा हैं,
बादल जल वाली करुणा हैं,
इन्द्रिय-सुख को हम लुटा लूट
तरुणाई लिए विचरते हैं।

सागर-तल के हम दावानल,
हम कुपित इन्द्र के बड़वानल,
हम शून्य सृष्टि के माथे पर-
बन चन्दन-गंध पसरते हैं।

हम इन्द्रधनुष के सात रंग,
चूमते क्षितिज चढ़कर तुरंग,
धरती-आकाश लिये दृग में-
भारत अभिनन्दन करते हैं।

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