कहां है वीथिका जमदग्नि की
शत अश्वमेधों की यही धरती
जहां से चक्रमण करती हुई
गंगा पुनः उत्तर को चलती है
मगर थोड़ी-सी सांस लेती है
जहां 'धनुर्वेद का मर्मज्ञ'
फरसा हाथ लेकर
काल-गति से दौड़ता है।
वहीं पर द्रोण प्रत्यंचा संभाले
वाण से पाताल-जल भी फोड़ता है।
वहीं पर ध्यानावस्थित इक 'बटुक'
'बैकुंठ' का करता सृजन है,
जो अपना प्राण प्रण संकल्प है
तन मन है, पूरा धन है,
हमारी आस्था श्रद्धा जिसे करती नमन है।
उसी की अर्चना में
धाम की महिमा सुनाता हूं
उसी श्री नाम की गरिमा गिनाता हूं,
चलो प्रासाद में खोजें कोई कुबेर
जहां पर एक शिल्पी
मौन तप की साधना में रत
सृजन की मोरपंखी तूलिका से
चिरंतन संस्कृति के कोटरों में
इन्द्रधनुषी कल्पना के रंग
इतना भर रहा है
हमारी प्रकृति की संवेदना
होकर तरंगित ढूंढती है ललित लहरों को,
हमारा विरल-विह्वल मन
हिरन-सा ढूंढता है गंध कस्तूरी,
यहीं से बालुका पर
दौड़ता-सा वह हांफता
'मतसा' पहुंचता है
वहीं पर आम्रकुंजों में
तृषा की 'नीलकंठी'
भोजपत्रों पर प्रणय के गीत लिखती है
'अरे पूरब के परदेसी
तू आ जा...कामरुपों की नजर से बच
तू मेरी भंगिमा का भाव पढ़
बोल वह भाषा कि
भारत के हृदय के सिन्धु में
निरंतर चल रहा मंथन',
हमारी आंख खुलती या नहीं खुलती-
हमें लगता हमारा कवि अकेले
पी रहा होता है नीला विष
सुधा का कुम्भ हमको कर समर्पित
हमें बस कुम्भ का अमृत पता है।
जो सत्साहित्य के संपत्ति की गठरी
किसी दधीचि की ठठरी
जिसे ले हम 'किरातों की नदी' में
'चन्द्रमधु' स्नान करके
अमरफल का पान करके
एक आदिम स्वर्ग में है वास करते
सहस्त्रार्जुन सरीखा पीढ़ियों का नाश करते
एक इच्छाधेनु खूंटे से बंधी है-
हमारी शून्यता-
साहित्य के लालित्य से कैसे भरेगी?
मनीषी के हृदय में
त्रासदी की लौ भभकती है
पता है? क्रौंच-वध का तीर
किसके जिस्म को
छलनी किया है ? वही आराध्य मेरा।
विश्वामित्र ने
विश्वासपूर्वक कुछ गढ़ा था
जहां कुछ पीढ़ियों ने कुछ
औ' किसी ने कुछ का कुछ पढ़ा था।
हमारी गहन से होती गहनतम रिक्तियों में
हमारी सघन से होती सघनतम वृत्तियों में
विरल-सा प्रेरणा का
आज किंचित पारदर्शी अक्स उभरता है,
हमारी जिंदगी में
इन्द्रधनुषी रंग निश्चित जो भी भरता है
वही मानव, महामानव
नया भारत हृदय में पालता है।
उसी के नाम अक्षत-पुष्प लेकर हम खड़े हैं
चलाकर चल दिया उसने
उसी संकल्प पर अनवरत चलते रहेंगे।
एक छोटी वर्तिका में
सूर्य की आभा लिए जलते रहेंगे।
वही कुबेर का प्रण था तो उसके हम हैं अटल प्रण,
चलें हम उस मनीषी का करें
हर बार अभिनमन।
Friday, June 20, 2008
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment