मन के आंगन में जहां आतंकों की गूंज।।
चक्की में पिसते रहे बस मज़दूर-किसान।
कुर्की घर की बोलती-बाक़ी क़र्ज-लगान।।
टुक़डे-टुकड़े ज़िंदगी-क्या कहती दो-टूक।।
तोते मंडन मिश्र के, बांच रहे तकदीर।।
सुरसा के मुंह बैठता-जनता के दरबार।।
सच ने अंतिम सांस ली-कहां झूठ को आंच।।
क्रूर काल के हाथ से-सरके जैसे रेत।।
लाठी जिसकी भैंस है, बेचारा कानून।।
जनमेजय का हो रहा पानी-पानी आग।।
धुंआ-धुंआ सपने हुए, उजड़े कई सुहाग।।
जाहिर उनकी ज़िंदगी चलती बिना उसूल।।
संसद-सड़कें-कुर्सियां, सच्ची आदमखोर।।
लोकतंत्र की रीति की बेशक भली तमीज।।
ऐसी लंगड़ी सोच का, क्या होगा अल्लाह।।
2 comments:
अद््भुत है...
हर दोहा बेहतरीन है, बधाई स्वीकारें।
***राजीव रंजन प्रसाद्
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